भूतपूर्व हंसी (From Dainik Tribune) ज्यों-ज्यों दफ्तर में उनका ओहदा बढ़ता गया, गंभीरता का चश्मा उनके चेहरे पर चढ़ता गया। नौकरी में नए-नए आए थे तो लगाते थे बात-बात पर ठहाके, लेकिन अब लगता है जैसे बैठे हों किसी मातम पर। हर ऊंची कुर्सी ने उनकी हंसी छीन ली है, लगता है जैसे उ ¯न्होंने दु:ख की कीलें बीन ली हैं। -हरीश कुमार ‹“अमित
अच्छा नहीं लगता बुजुर्गों को नया जमाना, अच्छा नहीं लगता। बात-बे-बात बहाना बनाना, अच्छा नहीं लगता। कभी कमजोर को सताना, अच्छा नहीं लगता। सदा सबको चूना लगाना, अच्छा नहीं लगता। कहे ‹“भारती अपना बेटा, जब हो जाए सयाना, ‹“दुल्हन ही दहेज बताना, अच्छा नहीं लगता। -भूपसिंह ‹“भारती
दिन में तारे बीवी के आगे मियां जी हारे, दिखा देती जो दिन में तारे। कौन होगा भाई, कौन रिश्तेदार, फैसले ये बीवी करती सारे। वो कहे तो मीठा है मीठा, वरना सब संबंध हैं खारे। मियां बेचारा चाहे मेल-जोल बढ़ाना, पत्नी इन बातों को है टारे। पुरुष यदि हंसने की हिम्मत जुटाता, पर स्त्री के नखरे हैं न्यारे। कोई कहे पुरुष प्रधान है समाज, लेकिन हम तो कहते केवल हैं लारे॥ -महासिंह श्योरान
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